मैं आस्तिक क्यों हूं? Why I am Theist?

 मैं आस्तिक क्यों हूं?

मै आस्तिक इसलिए नहीं हूं कि मैं मुसलमान के घर पैदा हुआ। या मुझे स्वर्ग की लालच है या नरक का का डर। ये मेरे आस्तिक होने का कारण नहीं है।


बल्कि मै आस्तिक इसलिए हूं, कि मै अपने वजूद को नहीं झुठला सकता। मै कैसे कह दूं कि मैंने अपने आप को जन्म दिया है या मैंने खुद को पैदा किया। कोई कह सकता है की मेरे मा बाप ने मुझे पैदा किया परन्तु ये सत्य नहीं मेरे मा बाप ने भी मुझे नहीं बनाया।


मैं जानता हूं कि मै तो बस एक गंदे पानी की बूंद था भला उससे मेरे मा बाप मुझे कैसे बना सकते हैं जबकि वो खुद भी तो कभी उसी प्रकार की एक बूंद थे। 


मुझे हैरत है इस बात पर कि जब मैंने इस दुनिया में आंखे खोली तो उन तमाम चीजों को मेरे आस पास पाया जो मेरे जीने के लिए ज़रूरी हैं।


प्यास लगने पर मुझे पानी की जरूरत होती है पर पानी को मैंने नहीं बनाया। भूख लगने पर मुझे खाने की जरूरत होती है पर मैंने ज़मीन से अनाज को नहीं निकाला। मैंने तो ज़मीन में बीज डाला था तो फिर उससे अनाज कैसे निकल आया!! 


सर्दी से बचने के लिए और रोशनी के लिए सूरज को मैंने नहीं बनाया, और ना ही चांद को। ये मेरे घर से कितनी दूरी पर होंगे ये बात भी मैंने तय नहीं की।

अगर वो सूरज ज़रा भी करीब होता तो मै उसकी गर्मी से मर जाता, और अगर ज़रा दूर होता तो मै ठंड से मर जाता।


मैंने अपने जीवित रहने का इंतज़ाम नहीं किया।

हां मैंने पैसों का इंतज़ाम किया है पर उन पैसों से मै जीवित नहीं रह सकता जब तक कि मैं उनसे उस अनाज को ना खाऊ जो कि ज़मीन से निकलता है, जिसे मैंने नहीं बनाया। 


वह हवा जिसके बिना जीवन की कल्पना भी संभव नहीं है, जो हर पल मेरे शरीर में दौड़ रही है उसको मैंने नहीं बनाया। 


लोग बात करते हैं तर्क की, पर इससे बड़ा तर्कसंगत प्रश्न और क्या हो सकता है कि मैं जानू मेरे वजूद की हकीकत क्या है, मै यहां क्यों आया हूं, मुझे किसने बनाया क्यों बनाया। मुझे मार कर वो कहां ले जा रहा है। 


मैंने तो नहीं कहा था कि मुझे बनाओ, पर उसने मुझे बनाया, मै नहीं चाहता कि मै मर जाऊ पर वो मुझे मारेगा। मै ये सब नहीं चाहता पर ये हो रहा है और एक दिन मेरे साथ भी हो जाएगा...।



आज़ादी मेरी अंतरात्मा का मूल सिद्धांत है मुझे आज़ादी पसंद है, मै खुद के और दूसरों के लिए भी आज़ादी को पसंद करता हूं। पर कैसी भी आज़ादी हो एक दिन मौत आकर उसे छीन के लेे जाती है। हमने आज़ादी लेे ली अंग्रेज़ो से, आज़ादी लेे सकते हैं अत्याचारी शासक से, लेकिन उस मौत से कैसे आज़ादी लेंगे, जो हर हाल में आकर रहेगी।


जो व्यक्ति खुद को तर्कसंगत, यथार्थवादी और स्वतंत्रा सेनानी समझता है तो उसके लिए ज़रूरी है कि हर तरह की स्वतंत्रा की बात करे। वो आजादी भी कैसी आज़ादी जो मौत पर ख़तम हो जाती है?


क्या मुझे स्वर्ग का लालच है? नहीं। बल्कि संतुष्टि की इच्छा करना, उसको तलाश करना मेरी प्रकृति का हिस्सा है। इसलिए स्वर्ग की कामना करना मेरी मजबूरी है। 


लोग मुझे अंधविश्वासी या अभिमानी कह सकते हैं पर मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता। मुझे फर्क नहीं पड़ता मै तो खुद अपनी तलाश में निकला हूं। 


मै आस्तिक इसलिए नहीं हूं कि मै अंधविश्वासी हूं बल्कि वो इंसान कभी सच्चा आस्तिक हो ही नहीं सकता जो अंधविश्वास का पुजारी हो। 


मै मानता हूं कि हर आस्तिक और यथार्थवादी इंसान को उन तमाम रितिओ और मान्यताओं को बारीकियों से परखना चाहिए जो पहले से चली आ रही हैं। उसे ये जानने का प्रयास करना चाहिए कि वो सारी मान्यताएं जो सदियों से चली आ रही क्या उनका वास्तव में ईश्वर से कोई संबंध है भी या नहीं। 


मैं समझता हूं कि इस संसार में ईश्वर की अनेकों धारणाएं हैं, और उनमें बहुत सी ऐसी भी हैं जिन्हें स्वीकार करना एक तर्कसंगत व्यक्ति के लिए असंभव सा है। यही वजह है कि लोगों का एक समूह जब ईश्वर की इन तर्कहीन धारणाओं से दो चार होता है तो नास्तिकता को अपनाना उसके लिए अधिक आसान हो जाता है। किंतु ईश्वर की गलत धारणाओं को सामने रखकर, ईश्वर से अज्ञान होने की बुनियाद पर उसके अस्तित्व को ही नकार देना अपने आप में तर्कहीन है। 


मैं जानता हूं कि संसार में बहुत अन्याय है। परंतु खुद मनुष्यों द्वारा पैदा किए गए फसाद का दोषी ईश्वर को ठहराना और रोष में उसके अस्तित्व को ही नकार देना एक मैं एक तर्कशील व्यक्ति का कार्य नहीं समझता। 


ज़ालिम राजा ज़ुल्म का इसलिए नहीं कर रहा कि ईश्वर की इच्छा है बल्कि वो इसलिए ज़ुल्म कर रहा है क्योंकि ईश्वर ने उसे अपनी इच्छाओं पर चलने की अनुमति दे रखी है। और वो ईश्वर की अनुमति का गलत उपयोग कर रहा है। 


ईश्वर उसे ढिलाई दिए है इसलिए नहीं कि ईश्वर के पास उसे काबू में करने का सामर्थ्य नहीं है बल्कि इसलिए कि ईश्वर किसी इंसान को ज़बरदस्ती अच्छा या बुरा नहीं बनाया करता बल्कि ईश्वर तो उसे ही अच्छाई कि राह दिखाता है जो खुद अच्छाई की इच्छा करता हो।



लोग कहते हैं कि अगर ईश्वर मौजूद है तो वो अन्याय को रोकता क्यों नहीं?

बेशक ईश्वर चाहे तो अन्याय को रोक सकता है, लेकिन उसने इस संसार की रचना प्रतिफल और सज़ा की बुनियाद पर नहीं की है। बल्कि यह तो एक ऐसा संसार है जहां हर घड़ी, हर मनुष्य चाहे अच्छा हो या बुरा अपनी मौत से करीब होता जा रहा है। ऐसे संसार में भला क्या किसी को‌ न्यायसंगत पुरस्कार या दण्ड मिल सकता है।


बल्कि जिंदगी और मौत तो इसलिए पैदा की गई है कि यह बात जाहिर हो जाए कि कौन अच्छे कर्म करता है और कौन बुराई को अपना साथी बनाता है। ये संसार तो बस एक परीक्षा केंद्र मात्र है जहां लोग आते हैं और चले जाते हैं। और‌ संपूर्ण रूप से न्यायसंगत प्रतिफल तो आखिरत ही में होना है। 



ईश्वर ने हमें कठपुतली नहीं बनाया है। ऐसा नहीं है कि उसने सब कुछ लिख कर हमें मजबूर कर दिया है बल्कि उसने हर एक इंसान को इच्छाशक्ति दी है। अब इंसान अपनी इच्छाशक्ति और सोचने समझने की ताकत का इस्तेमाल करके चाहे अच्छा कर्म करे या बुरा। 


एक ज़ालिम राजा अपने जुल्म को ईश्वर की इच्छा बताता है। एक पाखंडी, ईश्वर के नाम पर अंधविश्वास फैलाता है। एक ताकत के नशे में चूर व्यक्ति जमीन में उत्पात मचाता है। और एक ऐसा व्यक्ति कि जब उसके घर बेटी जन्म लेती है तो उसका चेहरा काला पड़ जाता है और वो यह ख्याल करता है कि उस बच्ची को जीवित रखे या जमीन में ही जिंदा दफ़न कर दे।


क्या वह सोचता है कि उस पर कोई नज़र नहीं रखे है? क्या वह सोचता है कि उस पर कोई काबू नहीं पा सकता? क्या वह सोचता है कि जो कुछ इच्छा वो कर रहा है उसे कोई नहीं जानता ? क्या भला वही नहीं जानता जिसने‌ उसको पैदा किया? 


अच्छा तो अगर वो खुद को हर किसी से बेपरवाह ख्याल करता है तो फिर वह उस मौत को फेर क्यों नहीं देता जब वह उसकी हलक में आ पहुंचती है। 


क्या भला ये संभव है कि उस ईश्वर ने इस असीम ब्रह्मांड को यूं ही बेवजह और बेमक़सद पैदा कर दिया है? तो क्या एक अत्याचार करने वाला और वह जिसपर अत्याचार किया जाए दोनों बराबर हो सकते हैं? तो क्या एक सत्य को स्वीकार करने वाला और एक सत्य को जानते बूझते झुटलाने वाला बराबर हो सकता है? हरगिज़ नहीं। 


कुछ लोग कहते हैं कि मर के मिट्टी हो जाना है जो करना है यहीं करलो। मरने के बाद क्या होगा किसने देखा है। पर क्या ईश्वर ने नहीं दी उनको दो आंखें और ज़बान और होठ और नहीं बनाए उनके दिल और दिमाग? तो क्या वो इंसान कभी एक बूंद न था?


कुछ कहते हैं कि जब हड्डियां सड़ गल जाएंगी तो कौन उनमें जान डालेगा।। यक़ीनन उनमें वही जान डालेगा जिसने पहली बार डाली थी। जब ईश्वर ने उसे ऐसी हालत से पैदा किया जिसे वो जानता भी ना था तो क्या वही ईश्वर इस बात का सामर्थ्य नहीं रखता कि मौत के बाद उसे दोबारा से उठा खड़ा करे? क्या ये बात तर्कसंगत नहीं है?


कुछ लोग ये कह सकते हैं ये कि कोशिकाएं अपना चयन खुद करती हैं पर मुझे ये जानने में जादा रुचि है कि ऐसी कोशिकाएं जिनमें किसी चीज़ का भी ज्ञान नहीं है वो कैसे ये सोचने और तय करने में सक्षम हो सकती हैं कि किस परिस्थिति में कैसा चयन करना है?


और मौत के बाद ऐसा क्या होता है कि वो सारी कोशिकाएं जो अभी तक अच्छे से अपने अपने काम के रही थीं एकाएक सब बिखरने लगती हैं। वो कौन सी ताकत है जो उन कोशिकाओं को एक साथ अभी तक थामे हुई थी? और उसके जाते ही सारे कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं? मै तर्कसंगत हूं और किसी भी सिद्धांत को बिना तर्क स्वीकार नहीं कर सकता। 



मैं आस्तिक हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि खुद की, संसार की, और ब्रह्मांड की सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता, तो फिर उसको कैसे झुठलाया जा सकता है जो इन सारी चीजों का रचनाकार है। इस ब्रह्माण्ड की अथाह मानवीयत, इसका एक विस्मयकारी नियम में बंधा होना, इसमें मौजूद अतंत ज्ञान एक सर्वशक्तिमान के अस्तित्व को अनिवार्य कर देता है। 


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